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छत्तीसगढ़ : पाश्चात्य अवधारणा में राज्य एक आवश्यक बुराई है,एक ऐसी आवश्यक बुराई जिसके अभाव में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता है। इसलिए मानव अस्तित्व में ऐसी बुराई का बना रहना भी जरूरी है, ठीक उसी तरह जैसे जल में नमी होती वैसे ही शासन में कानून और पुलिस, शासन की सफलता में कानून की महती भूमिका है,  भय कानून का मूल मंत्र है।

लेकिन जब बढ़ते अपराध और उनकी प्रकृति में भयावहता अधिक दिखने लगे तब पुलिस की कार्यशैली और उन्मुक्त अपराध पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। इसके लिए परिस्थिति भी लगातार अवसर उपलब्ध कराती रहती है। कानून व्यवस्था के सजग प्रहरी के रूप (जो एक कल्पना मात्र है) में समाज में कानून व्यवस्था स्थापित करने का दायित्व पुलिस का है।


 कवर्धा, बलौदाबाजार-भाटापारा, सीतापुर और सूरजपुर जैसी लोमहर्षक घटनाओं ने पुलिसिया कार्यशैली पर एक और प्रश्नचिन्ह बढ़ा दिया है।  सीतापुर और सूरजपुर के जघन्यतम हत्या काण्ड आने वाले कुछ वर्षों तक ऐसे वीभत्स अपराधों का प्रतिनिधित्व करते रहेंगे। लेकिन इसके लिए कोई एक नहीं कई स्थाई और समसमायिक कारण है,जो तत्कालीन परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित कर सदैव अपने अस्तित्व को बनाए रखते हैं।


 प्रख्यात कवि और साहित्यकार डा०अशोक चक्रधर वर्षों पूर्व अंबिकापुर,एक कवि सम्मेलन में पुलिस व्यवस्था पर व्यंग करते हुए कहा था, “हम अपराध मिटाते नहीं अपराधों की फसल की देखभाल करते हैं”।

वर्षों पूर्व का यह सतहीय व्यंग्य आज सूरजपुर पुलिस का शाश्वत सत्य प्रतीत होता है,कम से कम इस दोहरे हत्याकांड में सत्य इसी तरह से भाषित होता है। अपराधी द्वारा इससे पूर्व दुर्गा विसर्जन के समय खौलता तेल पुलिस वाले पर फेंक, उसे आहत करना यह तय करता है कि अपराधियों के मन से पुलिस का भय 31फरवरी हो गया है, इससे पूर्व अंबिकापुर में एक कांग्रेसी नेता द्वारा थाने में घुस कर पुलिसकर्मियों की पिटाई की गई यह इस तरह की पहली घटना थी। लेकिन ऐसी घटनाएं अधिकांश दो तरह से सामने आती हैं, एक धनबल और दूसरा राजनैतिक संरक्षण के कारण, सूरजपुर की घटना में यही दो प्रमुख कारण है। दिनांक 01/01/24से दिनांक 30/06/24 के मध्य छत्तीसगढ़ राज्य में अपराधों की संख्या यथा रही है।

हत्या -499,मानव वध -21,बलवा -372,गृहभेदन 1958, बलात्कार -1291 के मामले पंजीबद्ध हुए।  आकंड़ों से ज्ञात होता है कि पिछली सरकार के मुकाबले अपराध प्रतिशत कम है। लेकिन छत्तीसगढ़ में अपराध की संख्या और प्रकृति में अप्रत्याशित परिवर्तन आया है। जबकि कोयला, कबाड़ और नशा सूरजपुर जिले से विशेष लगाव रखता है।


हां पुलिस के समर्थन यह अवश्य लिखा जा सकता है कि,कार्याधिकता, राजनैतिक दबाव, अवकाश की जटिलता या कमी,और उन्हें वर्दी, भोजन इत्यादि के लिए मिलने वाले भत्ते अपर्याप्त है। 


छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक संपदा और विकास की अपार संभावनाएं हैं, जिसके आर्थिक प्रभाव और प्राकृतिक दोहन हेतु बाहरी ठेकेदारों का दखल बढ़ता जा रहा है। छत्तीसगढ़ के अपराध प्रवृति में परिवर्तन यह है कि उसने अपनी शरणस्थली राजनीति में या उससे आश्रय प्राप्त है।

विगत कई वर्षों से छत्तीसगढ़ में भी रक्तरंजित अपराध से अधिक रक्तहीन अपराध भू-माफियाओं के द्वारा किया जा रहा है, कैसे किया जा रहा है, लिखने की आवश्यकता नहीं है ।इस क्षेत्र सभी दलों के स्थानीय पदाधिकारी या कार्यकर्ता एक सर्वदलीय मंच के कार्यकर्ता जैसे कार्य करते हैं।

जहां सभी राजनैतिक प्रतिबद्धताओं की तिलांजलि दे दी जाती है। समान्य रूप से पुलिस कर्मियों और अधिकारियों को असीमित कार्य- व्यस्तता और राजनैतिक दबाव में काम करना पड़ता है, जिसके फलस्वरूप पुलिस साधारणतः एक मनोवैज्ञानिक उलझन नुमा दबाव और कुंठा से ग्रसित हो,इसका इलाज वे अवैध वसूली, और चुंगी कर के रूप में
करते हैं, जिसमें स्वाभाविक रूप से छुट्टी की कमी, परिवार से दूरी वाली पुलिसिया खीझ समाहित रहती है ,जो सहज मानवीय स्वभाव भी है।जब जब वसूली या आर्थिक डोज अधिक होता है तब तब सीतापुर और सूरजपुर जैसी घटनाएं होती हैं।


मूल बात यह है कि समाज और राजनीति की वैचारिक संरचना में परिवर्तन के बिना हर प्रयास वैसे ही
हॅंसी का पात्र बनेगा, जैसे पाव पर आटा और पुल पर रसोई।
      
सीमा सिंह

सामाजिक मुद्दों पर सजग यह लेख लेखक के अपने विचार हैँ ।